संध्या की उत्पत्ती व काल : संध्या देवी की उत्पत्ति भगवान ब्रह्मदेव से हुई है और यह पृथ्वी के सभी द्विजों को नित्य अंतर्बाह्य पवित्र करती है | यह तेज व पवित्रता प्राप्त करने का साधन है | इसका काल इस प्रकार बताया जाता है,
उत्तमा तारकोपेता मध्यमा लुप्ततारका |अधमा सूर्यसहिता प्रात:संध्यात्रिधा स्मृता || (देवीभागवत ११.१६.०४)
अहोरात्रस्य या संधि: सूर्यनक्षत्र वर्जिता | सातुसंध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्वदर्शिभि:|| (आचारभूषण)
संध्यावंदन का उद्दिष्ट:
जीव से प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष रूप से होनेवाले पापों का क्षालन करते हुए जीवन में कायिक, वाचिक एवं मानसिक शुचिता तथा तेज प्राप्त करना, यह इस विधिके अनेक उद्दिष्टों में से एक प्रमुख उद्दिष्ट दिखाई देता है |
संध्यामुपासते ये तु सततं संशितंव्रतम् | विधूत पापास्तेयान्ति ब्रम्हलोकं सनातनम् || (अत्रिस्मृती)
संध्याहीनो शुचिर्नित्यो मनर्ह: सर्वकर्मसु |यदन्यत् कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत् || (दक्षस्मृती २/२७)
संध्यावंदन विधी के सामान्यतः प्रमुख अंग
- आचमन :
यहाँ भगवान विष्णु का स्मरण (२४ नामो द्वारा) किया जाता है, जहाँ प्रथम तीन नाम लेते हुए जल प्राशन किया जाता है और चौथा नाम लेते हुए हाथों से जल छोड़ा जाता है एवं अन्य नाम लिए जाते है |
- प्राणायाम :
इस समय गुरुमंत्र (गायत्री इ.) का जाप किया जाता है | पूरक में नीलवर्ण चतुर्भूज भगवान विष्णूका , कुंभक में हृदयस्थित रक्तवर्णी चतुर्मुखी ब्रह्माका , रेचक में ललाटस्थित श्वेतवर्णी भगवान शंकर का ध्यान किया जाता है | इसके द्वारा शरीर स्वास्थ्य एवं तेज की प्राप्ति होती है |
श्वास अन्दर लेना | (पूरक)
श्वास रोके रखना | (कुम्भक)
श्वास बाहर छोड़ना | (रेचक)
अगर्भो ध्यानमात्रं तु स चा मन्त्रः प्रकीर्तिताः || (दे.पु. ११.२०.३४)
- प्रथम मार्जन :
यहाँ शरीर पर समंत्रक आठ बार जलसिंचन किया जाता है और बाह्य शुद्धि साध्य की जाती है |
विप्रुशोष्टौ क्षिपेन्मूर्ध्नि अथोयस्यक्षयायच| (व्यासस्मृती)
- मंत्राचमन :
कायिक, वाचिक, मानसिक आदी पातकनिवृत्त्यर्थ समंत्रक जल प्राशन करते हुए आचमन किया जाता है |यहाँ कायिक, वाचिक, मानसिक शुद्धी साध्य की जाती है |
- द्वितीय मार्जन :
यहाँ शरीर पर पुनः समंत्रक आठ बार जलसिंचन किया जाता है और पुनः बाह्य शुद्धि साध्य की जाती है |
- अघमर्षण :
दायें हाथ में जल लेकर समंत्रक उच्छवास दायें नासिकारंध्र से छोड़कर वह ना देखते हुए पीछे डाल दिया जाता है | अघ अर्थात अंतर्पाप या असत प्रवृत्ति का त्याग यहाँ साध्य किया हुआ दिखाई देता है | यहाँ तक सकल शुद्धि व पवित्रता की प्राप्ति करते हुए श्रीसुर्यपूजन, अर्घ्यदान, जाप आदि विशेष विधियों का प्रारंभ होता है |
- श्रीसूर्यअर्घ्यदान :
नूतन पात्र में नूतन जल व गंध, फुल एकत्रित करते हुए अंजुली से अंगुष्ठ दूर रखते हुए समंत्रक तीन अर्घ्य (संध्यावंदन काल को विलंब होनेपर चौथा) श्रीसूर्यनारायणप्रीत्यर्थ खड़े रहकर दिए जाते है | प्रातः तथा मध्यान्ह पूर्वाभिमुख खड़े होकर और सायं पश्चिमाभिमुख बैठकर अर्घ्य दिए जाते है |
अर्घ्य दान पश्चात प्राप्त जल का नेत्र एवं मस्तक को स्पर्श किया जाता है और शेष जल पवित्र वृक्षादी में विसर्जित किया जाता है |
ईशन्नम्र: प्रभातेवै मध्याह्ने दंडवत्स्थित: | आसने चोsपविष्टस्तुद्विज: सायंक्षिपेदप : || (देवीभागवत ११.१६.५२)
जलेष्वर्घ्यं प्रदातव्यम् जलाभावे शुचिस्थले | संप्रोक्ष्य वारिणासम्यक ततोर्घ्यंतु प्रदापयेत् || (अग्निस्मृती)
मुक्तहस्तं न दातव्यं मुद्रां तत्र न कारयेत् | तर्जन्यंगुष्ठ योगेन राक्षसी मुद्रिका स्मृता |
राक्षसी मुद्रिकार्घ्येण तत्तोयं रुधिरं भवेत् || (देवीभागवत ११.१६.४९)
- पृथ्वीपूजन / आसनविधी :
आचमन, प्राणायाम करते हुए पृथ्वी माता का पूजन व वंदन किया जाता है | अनंतर आसनविधी कि जाती है |
- न्यास / मुद्रा / जप :
यहाँ समंत्रक षडंगन्यास, करन्यास व हृदयादिन्यास किये जाते है और गुरुमंत्र (श्रीगायत्री इ.) जाप (१०८ / किमान १०) किया जाता है | जाप के पूर्व २४ व बाद में ८ मुद्राएँ की जाती है |
सुमुखं संपुटंचैव विततं विस्तृतं तथा |द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुष्पंच मुखंतथा ||
षण्मुखाsधो मुखं चैव व्यापकांजलिकं तथा | शकटं यमपाशंच ग्रंथितं चोन्मुकोन्मुखम् ||
प्रलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्य: कूर्मो वराहकम् | सिंहाक्रांतं महाक्रांतं मुद्गरं पल्लवं तथा||
एता मुद्राश्चतुर्विंशज्जपादौपरिकीर्तिता: | सुरभीर्ज्ञान वैराग्ये योनि: शंखोsथ पंकजम् |
लिंग निर्वाण मुद्राश्च जपांतेष्टौ प्रदर्शयेत् ||
- उपस्थान व कर्म समर्पण :
यहाँ श्रीसूर्यनारायण देवता की स्तुती, उपस्थान, दिशावंदन, चराचर के सभी देवताओं को वंदन, माता-पिता-गुरू इ. को अभिवादन करते हुए तीन स्वप्रदक्षिणा की जाती है | अपने आसपास के सभी घटकों के कल्याण एवं मंगलता की कामना करते हुए संध्यावंदन विधि परमेश्वर को समर्पित किया जाता है |
संध्यावंदन का महत्त्व :
संध्यावंदन का अनन्यसाधारण महत्त्व वैदिक धर्म में प्राचीन ऋषिमुनियों द्वारा बताया गया है | इसलिए प्रत्येक व्यक्ति ने नित्य और अखंड संध्यावंदन करना आवश्यक है | आचार्यद्वारा संध्यावंदन विधि की शिक्षा पाते हुए यह विधि मुखोद्गत करते हुए अल्प समय में यह कर्म साध्य किया जा सकता है |
राष्ट्रक्षोभे नृपक्षोभे रोगार्ते भय आगते |
देवाग्निव्दिज भूपानाम् कार्येमहती संस्थिते |
संध्याहीनौनदोषोsस्ति यतस्तत्पुण्यसाधनम् || (जमदग्नी स्मृती)
देवी भागवत में (११.१६.६) ऐसा कथन है कि,
विप्रो वृक्षो मूलकान्यत्र संध्या वेदा:शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् | तस्मान्मूलं यत्न तो रक्षणीयं छिन्ने मूलेनैव वृक्षो न शाखा ||
अर्थात,
जैसे वृक्ष का मूल नष्ट होने पर उसकी शाखाओं का विस्तार नहीं होता, उसी प्रकार विप्रस्वरुपी मनुष्य का मूल यह उसे कायिक, वाचिक, मानसिक शुचिता तथा अर्घ्यदान, जाप, गुरू-अभिवादन इ. द्वारा तेज प्रदान करनेवाला ‘संध्यावंदन’ है |
अतः जिस व्यक्ति को वैदिक संस्कृति व परम्परा का संवाहक होते हुए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदी चतुर्विध पुरुषार्थ प्राप्त करने है, उस व्यक्तीने नित्य संध्यावंदन करना चाहिए, ऐसा भगवती का उपदेश है |
नित्य संध्यावंदन करते है राष्ट्र तथा धर्म बलशाली बनाते है |
asthma medication speaker – asthma medication mutter asthma treatment musical
Your comment is awaiting moderation.