धर्मावतार :
- अधर्म व दुष्ट शक्तियों का नाश करते हुए धर्मस्थापना एवं सज्जनशक्ति प्रस्थापित करने के लिए भगवान विष्णुने यह अवतार धारण किया |
- परम भक्तों का संरक्षण व भगवत शक्ति का सर्वव्यापकत्व सिद्ध करनेवाला यह अवतार है |
- यह भगवान विष्णु के दशावतारों में से चौथा अवतार बताया जाता है |
अवतार काल :
वैशाख शु. चतुर्दशी (संध्यासमय)
प्राचीन कथा :
- संदर्भ :-
श्रीमद्भागवतपुराण, श्रीविष्णुपुराण आदी ग्रंथों में इन महान विभूति के कार्यकथाओं का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है |
- हिरण्यकश्यपू जन्म :-
ब्रह्मदेव के मानसपुत्र सनकादी ऋषियों के शाप से श्रीनारायण के द्वारपाल “जय-विजय” ने दैत्य कुल में तीन बार जन्म लिआ |
हिरण्याक्ष व हिरण्यकश्यपू
रावण व कुंभकर्ण
शिशुपाल व वक्रदंत
- राक्षसी वृत्ती :-
हिरण्याक्ष – अति संग्रहीवृत्ती तथा हिरण्यकश्यपू – अहंकार व भोगवृत्ती को दर्शाते है | इनमे से प्रथम दो “हिरण्याक्ष व हिरण्यकश्यपू” इनका उद्धार करने के लिए “वराह व नृसिंह” यह अवतार क्रमशः हुए |
- प्रल्हाद जन्म :-
अपनी शक्ति बढाने के लिए मंदराचल पर्वतपर तपश्चर्या के लिए निकले हुए हिरण्यकश्यपू को “नारायण,नारायण” ऐसी ध्वनी सुनाई दी | इसे अशुभ शकुन समझकर वह महल में वापस आया और इसी क्रोध में उसके द्वारा १०८ बार श्रीनारायण का चिंतन हुआ | अनंतर कयाधू के गर्भ में प्रल्हाद की स्थापना हुई, जो आगे महान विष्णुभक्त हुए |
- हिरण्यकश्यपु को वरदान :
आगे ब्रह्मदेव द्वारा इस दैत्य को “आपका मृत्यु ना दिन में होगा ना रात्री में, ना घर में ना बाहर, ना जड़ से ना अस्त्र-शस्त्र से, ना मनुष्य से ना पशु से”, ऐसा वरदान प्राप्त हुआ |
- प्रल्हादा की शिक्षा व हिरण्यकश्यपु का क्रोध :
प्रल्हाद को शुक्राचार्यपुत्र “शंड व अमर्क” द्वारा राजनीति विषयक शिक्षा दी गयी किन्तु उसने त्रिभुवन में श्रीहरी के अतिरिक्त अन्य का अस्तित्त्व अमान्य किया | परिणामतः हिरण्यकश्यपु क्रोधित हुआ और सर्वत्र अधर्म का उद्रेक हुआ |
- श्रीनृसिंह प्राकट्य :-
अंततः एक दिन क्रोध में आकर चराचर में निवास करनेवाले श्रीहरी को मारने हेतु इस दैत्यने एक खम्बे को लाथ मारी जिसमे से भगवान श्रीनृसिंह प्रकट हुए | उन्होंने सायंकाल में, चौकट पर, शस्त्रबिना (नाखुनसे) इस अधर्मी दैत्य का उद्धार किया |
- अवतार कार्य :-
इसप्रकार अपने अवतार से धर्मस्थापना व भक्त संरक्षण का ब्रीद भगवान ने पूर्ण किया |
धर्मबोध :-
- सनत्कुमारों के क्रोधित होने से उन्हें भगवान के दर्शन नहीं हुए, जय-विजय के व्यवहार विषमता के कारण वह शापित हुए, दिति के भेदबुद्धि के पाप के कारण उससे दैत्यों का जन्म हुआ | हमने इससे यह बोध लेना चाहिए कि, अपने काम, क्रोध आदि पर हमेशा नियंत्रण रखे, भक्ति से अंकुश रखे तथा उचित आचार, विचार व व्यवहार को अपनाये |
- भक्त प्रल्हाद ने दैत्य महल में सर्वत्र ईश्वर की अनुभूति की तभी वहा श्रीनृसिंह प्रकट हुए | मनुष्यने अपने जीवन में सदैव ईश्वर के व्यापक तत्त्व की भावना रखनी चाहिए जिससे पापाचरण को जगह नहीं रहेगी और प्रत्येक घर मंदिर बनेगा |
- केवलमात्र तप करने से कुछ नहीं होगा वह तो हिरण्यकश्यपुने भी किया था किन्तु तपश्चर्या प्रल्हाद की सफल हुई क्योंकि उसके पीछे शुद्ध भावना एवं हेतु था जो कल्याणप्राप्ति का साधन होता है |
- भक्त प्रल्हाद ने दुःख व कष्ट के समय में भी अपने ध्येय (श्रीहरी) का स्मरण नहीं छोड़ा अपितु अपने सत्संगति से सभी को अपने ध्येयदर्शन (श्रीनृसिंह) का लाभ कराया | तद्वत महान भक्त कठिन परिस्थिति में अपने ध्येय पर अडिग रहता है और सभी के कल्याण का कारण होता है |
- महान धर्मभक्त प्रल्हाद को बाल्यकाल से ही माता के द्वारा धर्ममार्ग का उपदेश प्राप्त हुआ, उसी प्रकार हमारे विस्तृत धर्मवृक्ष का मूल यह हमारे बाल्यकाल में होनेवाले धार्मिक संस्कार ही है |
- यहाँ दैत्ययोनि के जय-विजयों का उद्धार हुआ, अर्थात ईश्वर के दंड में भी जीव का कल्याण ही होता है |
- इस कथासे यह बोध प्राप्त होता है कि, भगवत्प्राप्ति या अपना ध्येय प्राप्त करने के लिए सम्पत्ति, विद्वत्ता, आयु, उच्च कुल इनकी आवश्यकता नहीं होती अपितु उचित हेतु, निश्चल वृत्ति एवं प्रामाणिक व शुद्ध प्रेम की आवश्यकता होती है |
|| श्रीनृसिंह भगवान की जय ||
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