अनंत चतुर्दशी

व्रताचे नाव : अनंत चतुर्दशी
व्रताची तिथी : भाद्रपद शु. चतुर्दशी

तत्रोदये त्रिमुहूर्तव्यापिनी ग्राह्या तदभावे द्विमुहूर्ता ग्राह्या द्विमुहुर्तन्यूनत्वे पूर्वैव |अत्र पूर्वान्हो मुख्यः तदभावे मध्यान्होsपि || (पूर्वान्हकाल महत्वाचा)

इतिहास

कौन्डील्य नामक ऋषींनी अनंताचा शोध घेण्यासाठी कठोर साधना केली आणि यावेळी अनंत सर्वत्र आहे, असा त्यांना प्रत्यय आला. हाच प्रत्यय स्मरणी ठेवून अनंत व्रत करावे.

व्रताची माहिती

  • हे व्रत सलग चौदा वर्षे करावे.
  • यामध्ये दर्भाचा सप्तफणी नाग केला जातो.
  • लाल सूत्रामध्ये १४ गाठी पाडून धागे विशिष्ट पद्धतीने गुंफले जातात. यातील दोन धागे अनंत व अनंती पुजेस घेतले जातात.
  • साधारणतः चौदा वर्षे पूर्ण झाल्यावर याचे उद्यापन केले जाते. तर काही ठिकाणी दरवर्षी हे व्रत केल्या जात असलेले दिसून येते.
  • या पुजनामध्ये उत्तरपूजा न करता मागील वर्षीच्या पूजेतील अनंत देवता ही अक्षत टाकून विसर्जित केली जाते.
  • वायन : यामध्ये १४ च्या संख्येत अपाल / अनारसे केले जातात.
  • यमुना तटावर हे व्रत केल्यास विशेष महत्त्व सांगितले असून याठिकाणी देवता सदैव स्थापित असते असे सांगितले जाते. (विशेष आवाहनाची आवश्यकता नाही.)

पूजन विधी

  • वंदन : घरातील थोरामोठ्यांना तसेच कुलदेवतेस वंदन करून पुजेस बसावे.
  • आचमन / प्राणायाम : तीन वेळेस पळीने पाणी प्राशन करून चौथ्यांदा सोडावे व प्राणायाम  करावा.
  • देवतास्मरण : (हात जोडावे)

कुलदेवताभ्यो नमः| ग्रामदेवताभ्यो नमः| एतत् कर्म प्रधान देवताभ्यो नमः| सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमो नमः|

  • संकल्प : (पळीत पाणी घेवून सोडावे)

मम सकुटुंबस्य सपरिवारस्य क्षेम स्थैर्य आयुरारोग्य सिद्ध्यर्थं मया आचरितस्य अनन्तव्रतस्य संपूर्ण फलावाप्तीद्वारा श्रीमद् अनन्तदेवता प्रीत्यर्थं यथाज्ञानेन यथाशक्ति ध्यान – आवाहनादि षोडशोपचार पूजनं अहं करिष्ये |

यानंतर श्रीगणेश पूजन, कलश, पृथ्वी, कलश, शंख, घंटा व दीप पूजन करावे. तत्रादौ निर्विघ्नता सिध्यर्थं महागणपति स्मरणं शरीर शुध्यर्थं षडङ्गन्यासं पृथ्वी, कलश, शङ्ख, घण्टा पूजनं च करिष्ये |

  • श्रीगणेश पूजन :

वक्रतुण्ड महाकाय सुर्यकोटि समप्रभ |निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा || श्रीगणेशाय नमः ||

  • पृथ्वी पूजन :

पृथ्वी त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता | त्वं च धारय मां देवी पवित्रं कुरु चासनम् || भूम्यै नमः ||

  • न्यास विधि : विष्णवे नमः |”, असे १२ वेळा म्हणून डोक्यापासून पायापर्यन्त स्वतःची शरीर शुद्धि करावी.
  • कलश पूजन :

कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः | मूले तत्रस्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः || कलशाय नमः ||

  • शङ्ख पूजन :

त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृतः करे | नमितः सर्व देवैश्च पाञ्चजन्य नमोस्तुते || शङ्खाय नमः ||

  • घण्टा पूजन :

आगमार्थं तु देवानां गमनार्थं तु राक्षसाम् | कुर्वे घण्टारवं तत्र देवताव्हान लक्षणम् || घण्टायै नमः ||

  • दीप पूजन :

भो दीप ब्रह्म रूपस्त्वं ज्योतिषां प्रभुरव्ययः | आरोग्यं देहि पुत्रांश्च सर्वान्कामान्प्रयच्छ मे || दीपदेवताभ्यो नमः ||

  • आत्मशुद्धि: स्वतः वर व पूजा साहित्यावर शंख जल प्रोक्षण करावे.

शङ्खोदकेन पूजाद्रव्याणि संप्रोक्ष्य आत्मानं च प्रोक्षेत् |

यमुना पूजन

चौरंगावर मध्यभागी कलशामध्ये यमुना पूजन करावे. श्रीमद् अनन्त व्रतान्गत्वेन यमुना पूजनं करिष्ये |

  • ध्यान : हातात अक्षता, फुले घेवून पुढील श्लोकांनी ध्यान करून अर्पण करावे.

लोकपालस्तुतां देवी मिन्दनील समुद्भवाम् |यमुने त्वामहं ध्याये सर्व कामार्थ सिद्धये || यमुनायै नमः ||

यमुनायै नमः||”, असे म्हणून आवाहनादी विविध उपचारांनी (वस्त्र, गंध, अक्षत, पुष्प, सौभाग्यद्रव्य) यमुना पूजन संपन्न करावे.

  • यमुनेचे अंगपूजन : प्रत्येक नामाने अक्षत वहावी.

चन्चलायै नमः – पादौ पूजयामि |, चपलायै नमः – जानुनी पूज. |
भक्तवत्सलायै नमः – कटीं पूज. |, हरायै नमः – नाभीं पूज. |
मन्मथवासिन्यै नमः – गुह्यं पूज. |, अज्ञातवासिन्यै नमः – हृदयं पूज. |
भद्रायै नमः – स्तनौ पूज. |, अद्यहव्यै नमः – भुजौ पूज. |
रक्तकण्ठ्यै नमः – कण्ठं पूज. |, भवहर्त्रै नमः – मुखं पूज. |
गौर्यै नमः – नेत्रौ पूज. |, भागीरथ्यै नमः – ललाटं पूज. |
यमुनायै नमः – शिरं पूज. |, सरस्वत्यै नमः – सर्वाङ्गं पूज. |

  • यमुनेची नामपूजा : प्रत्येक नामाने अक्षत वहावी.

यमुनायै नमः | स्थितायै नमः | कमलायै नमः | उत्पलायै नमः | अभीष्टप्रदायै नमः | धात्र्यै नमः |
हरिहररूपिण्यै नमः | गङ्गायै नमः | नर्मदायै नमः | गौर्यै नमः | भागीरथ्यै नमः | तुन्गायै नमः |
भद्रायै नमः | कृष्णावेण्यै नमः | भवनाशिन्यै नमः |सरस्वत्यै नमः | कावेर्यै नमः | सिन्धवे नमः |
गौतम्यै नमः | गायत्र्यै नमः | गरुडायै नमः | चन्द्रचूडायै नमः | सर्वेश्वर्यै नमः | महालक्ष्म्यै नमः |
“सर्वपाप हरे देवी सर्वोपद्रवनाशिनी |सर्वसंपद्प्रदे देवी यमुनायै नमोस्तुते ||”

  • पूजन समारोप : यानंतर यमुनायै नमः||”, असे म्हणून धूप, दीप, नैवेद्य, विडा-नारळ, आरती, कापूर, मंत्रपुष्प इ. उपचार अर्पण करावे व पळीभर पाणी सोडावे.

श्रीशेष पूजन

यमुना कलशावर संध्यापात्र ठेवून त्यावर श्री शेष (नाग) ठेवावा व त्याचे पुढीलप्रमाणे पूजन करावे. श्रीमद् अनन्त व्रतान्गत्वेन श्रीशेष पूजनं करिष्ये |

  • ध्यान : हातात अक्षता, फुले घेवून पुढील श्लोकांनी ध्यान करून अर्पण करावे.

ब्रह्माण्डाधारभूतं च यमुनान्तरवासिनम् |फणासप्तसमायुक्तं ध्यायेsनन्त हरिप्रियम् || श्रीशेषाय नमः ||

श्रीशेषाय नमः||”, असे म्हणून आवाहनादी विविध उपचारांनी (वस्त्र, गंध, अक्षत, पुष्प, सौभाग्यद्रव्य) श्रीशेष पूजन संपन्न करावे. अनेन कृतपूजनेन तेन श्रीयमुनादेवताःप्रीयताम् |

  • श्रीशेष अंगपूजन : प्रत्येक नामाने अक्षत वहावी.

सहस्रपादाय नमः – पादौ पूजयामि |, गूढगुल्फाय नमः – गुल्फौ पूज. |
हेमजन्घाय नमः – जङ्घे पूज. |, मन्दगतये नमः – जानुनी पूज. |
पीताम्बरधराय नमः – कटीं पिज. |, गन्भीरनाथाय नमः – नाभीं पूज. |
पवनाशनाय नमः – उदरं पूज. |, उरगाय नमः – हस्तौ पूज. |
कालिकाय नमः – भुजौ पूज. |, कम्बुकण्ठाय नमः – कण्ठं पूज. |
फणाभूषणाय नमः – ललाटं पूज. |, लक्ष्मणाय नमः – शिरं पूज. |
अनन्तप्रियाय नमः – सर्वाङ्गं पूज. |
“अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कंबलम् | शङ्खपालं धार्तराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा ||”

  • पूजन समारोप : यानंतर श्रीशेषाय नमः||”, असे म्हणून धूप, दीप, नैवेद्य, विडा-नारळ, आरती, कापूर, मंत्रपुष्प इ. उपचार अर्पण करावे व पळीभर पाणी सोडावे. अनेन कृतपूजनेन तेन श्रीशेषदेवताः प्रीयताम् |

अनंत-अनंती दोरक पूजन

  • प्राणप्रतिष्ठा :श्री दोरक देवतेला उजव्या हाताने स्पर्श करून म्हणावे,

अस्यैः प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यैः प्राणाः क्षरन्तु च |अस्यै देवत्वमर्चायै मा महेतिच कच्चन || श्रीअनन्ताय नमः||

यानंतर (दोरक) अनंत देवतेचा पंचोपचार (गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य) पूजन करावे

  • ध्यान : हातात अक्षता, फुले घेवून पुढील श्लोकांनी ध्यान करून अर्पण करावे.

पीताम्बरधरं देवं शङ्खचक्र गदाधरम् |अलङ्कृत समुद्रस्थं विश्वरूपं विचिन्तये || श्रीअनन्ताय नमः||

  • “श्रीअनन्ताय नमः||”, असे म्हणून वा पुरुषसुक्ताने आवाहनादी विविध उपचारांनी (आवाहन, आसन, आचमन, पाद्य, अर्घ्य, स्नान इ.) पूर्वपूजन संपन्न करावे.
  • पुरुषसुक्ताने अभिषेक करून उत्तर पूजन (वस्त्र, गंध, अक्षत, पुष्प, सुगंधीद्रव्य) संपन्न करावे.
  • ग्रंथी पूजन :अनंताच्या (दोरक) ग्रंथीवर (गाठीवर) या नाममंत्रांनी अक्षता वहाव्यात.

श्रीयै नमः | मोहिन्यै नमः | पद्मिन्यै नमः | महाबलायै नमः | अजायै नमः | मङ्गलायै नमः |
वरदायै नमः | शुभायै नमः | जयायै नमः | विजयायै नमः | जयन्त्यै नमः | पापनाशिन्यै नमः |
विश्वरूपायै नमः | सर्वमङ्गलायै नमः

  • अनन्तदेवतेचे अंगपूजन :पुढील प्रत्येक नामाने अक्षत वहावी.

मत्स्याय नमः – पादौ पूजयामि |, कूर्माय नमः – गुल्फौ पूज. |
वराहाय नमः – जानुनी पूज. |, नारसिंहाय नमः – ऊरु पूज. |
वामनाय नमः – कटीं पूज. |, रामाय नमः – उदरं पूज. |
श्रीरामाय नमः – हृदयं पूज. |, कृष्णाय नमः – मुखं पूज. |
सहस्रशिरसे नमः – शिरं पूज. |, श्रीमद् अनन्ताय नमः – सर्वाङ्गं पूज. |

  • आवरण पूजन : आवरण देवता म्हणजे अनंत देवतेच्या सभोवताली असणाऱ्या देवता होत. पुढील चौदा मंत्रांनी अनंत देवतेच्या सभोवताली प्रत्येक नावानी अक्षत वहावी व अर्घ्य (गंध, अक्षत, फुलं व जल संध्यापात्रात सोडणे) द्यावा व पुष्पाने आवाहित देवतांवर जलसिंचन करावे.

रमायै नमः| भूम्यै नमः| दयाब्धेत्राहिसंसार सर्पान्मांशरणागतं | भक्त्यासमर्पयेतुभ्यं प्रथमावरणार्चनं || (अर्घ्य)

वृद्धोल्काय नमः|, महोल्काय नमः|, शतोल्काय नमः|, सहस्रोल्काय नमः| दयाब्धे ..| भक्त्या ..द्वितीयावरनार्चनं |

वासुदेवाय नमः|, संकर्षणाय नमः|, प्रद्युम्नाय नमः|, अनिरुद्धाय नमः| दयाब्धे ..| भक्त्या ..तृतीयावरणार्चनं ||

केशवाय नमः|, नारायणाय नमः|, माधवाय नमः|, गोविन्दाय नमः|, विष्णवे नमः|,
मधुसूदनाय नमः|, त्रिविक्रमाय नमः|, वामनाय नमः| श्रीधराय नमः|, हृषीकेशाय नमः|,
पद्मनाभाय नमः|, दामोदराय नमः| दयाब्धे ..| भक्त्या ..चतुर्थावरणार्चनं ||

मत्स्याय नमः|, कूर्माय नमः|, वराहाय नमः|, नारसिंहाय नमः| वामनाय नमः|,
रामाय नमः|, श्रीरामाय नमः|, कृष्णाय नमः | बौद्धाय नमः|, कल्किने नमः|,
अनन्ताय नमः|, विश्वरूपिणे नमः| दयाब्धे ..| भक्त्या ..पञ्चमावरणार्चनं ||

अनन्ताय नमः|, ब्रह्मणे नमः|, वायवे नमः|, ईशानाय नमः| वारुण्यै नमः|, गायत्र्यै नमः|,
भारत्यै नमः|, गिरिजायै नमः| गरुडाय नमः|, सुपुण्याय नमः| दयाब्धे ..| भक्त्या ..षष्ठावरणार्चनं ||

इन्द्राय नमः|, अग्नये नमः|, यमाय नमः|, निर्ऋतये नमः| वरुणाय नमः|,
वायवे नमः|, सोमाय नमः|, ईशानाय नमः| दयाब्धे ..| भक्त्या ..सप्तमावरणार्चनं ||

शेषाय नमः|, विष्णवे नमः|, विधवे नमः|, प्रजापतये नमः| दयाब्धे ..| भक्त्या ..अष्टमावरणार्चनं ||

गणपतये नमः|, सप्तमातृभ्यो नमः|, दुर्गायै नमः|, क्षेत्राधीपतये नमः| दयाब्धे ..| भक्त्या ..नवमावरणार्चनं ||

ब्रह्मणे नमः|, भास्कराय नमः|, शेषाय नमः|, सर्वव्यापिने नमः| ईश्वराय नमः|, विश्वरूपाय नमः|,
महाकायाय नमः|, सृष्टिकर्त्रे नमः | कृष्णाय नमः|, हरये नमः|, शिवाय नमः|,
स्थितिकारकाय नमः| अन्तकाय नमः| दयाब्धे ..| भक्त्या ..दशमावरणार्चनं ||

शौरये नमः|, वैकुण्ठाय नमः|, महाबलाय नमः|, पुरुषोत्तमाय नमः| अजाय नमः|, पद्मनाभाय नमः|,
मङ्गलाय नमः|, हृषीकेशाय नमः| अनन्ताय नमः|, कपिलाय नमः|, शेषाय नमः|, संकर्षणाय नमः|
हलायुधाय नमः|, तारकाय नमः|, सीरपाणये नमः|, बलभद्राय नमः| दयाब्धे ..| भक्त्या ..एकादशावरणार्चनं ||

माधवाय नमः|, मधुसूदनाय नमः|, अच्युताय नमः|, अनन्ताय नमः| गोविन्दाय नमः|,
विजयाय नमः|, अपराजिताय नमः|, कृष्णाय नमः| दयाब्धे ..| भक्त्या ..द्वादशावरणार्चनं ||

क्षीराब्धीशायिने नमः|, अच्युताय नमः|, भुम्याधाराय नमः|, लोकनाथाय नमः| फणामणिविभुषणाय नमः|,
सहस्रमुर्ध्ने नमः|, सहस्रार्चिषे नमः| दयाब्धे ..| भक्त्या ..त्रयोदशावरणार्चनं ||

केशवाय नमः|, नारायणाय नमः|, माधवाय नमः|, गोविन्दाय नमः| विष्णवे नमः|, मधुसूदनाय नमः|, त्रिविक्रमाय नमः|,
वामनाय नमः| श्रीधराय नमः|, हृषीकेशाय नमः|, पद्मनाभाय नमः|, दामोदराय नमः| संकर्षणाय नमः|,वासुदेवाय नमः|,
प्रद्युम्नाय नमः|, अनिरुद्धाय नमः| पुरुषोत्तमाय नमः|, अधोक्षजाय नमः|, नरसिंहाय नमः|, अच्युताय नमः|
जनार्दनाय नमः|, उपेन्द्राय नमः|, हरये नमः|, श्रीकृष्णाय नमः| दयाब्धे ..| भक्त्या ..चतुर्दशावरणार्चनं ||

  • पत्री पूजन :पुढील प्रत्येक नामाने पत्री (नसल्यास अक्षत) वहाव्यात.

कृष्णाय नमः – (पळस) |, विष्णवे नमः – (उंबर) | हरये नमः – (पिंपळ) |, शंभवे नमः – (माका) |
ब्रह्मणे नमः – (जटामासी) |, भास्कराय नमः – (अशोक) | शेषाय नमः – (कवीठ) |, सर्वव्यापिने नमः – (वड) |
ईश्वराय नमः – (आंबा) |, विश्वरूपिणे नमः – (केळ) | महाकायाय नमः – (आघाडा) |, सृष्टिकर्त्रे नमः – (कण्हेर) |
स्थितिकर्त्रे नमः – (उंडळ) |, अनन्ताय नमः – (नागवेल) |

  • पुष्प पूजन : कमळ, जाई, चाफा, श्वेत कमळ, केवडा, बकुल, उन्दल, कण्हेर, धोत्रा, मोगरा, जुई इ. नानाविध फुले पुढील नामांनी अर्पण करावी.

अनंताय नमः | विष्णवे नमः | केशवाय नमः | अव्यक्ताय नमः |
सहस्रजिते नमः | अनन्तरुपिणे नमः | इष्टाय नमः | विशिष्टाय नमः |
शिष्टेष्टाय नमः | शिखण्डिने नमः | नहूषाय नमः | विश्वबाहवे नमः |
महीधराय नमः | अच्युताय नमः |

  • यानंतर धूप, दीप, नैवेद्य, तांबुल, विडा-नारळ अर्पण करावे.

वायन पूजन

यामध्ये १४ च्या संख्येने अनारसे वा अपाल ठेवतात व त्याचे पूजन करतात. यानंतर आरती, कर्पुरारती, मंत्रपुष्पांजली, प्रदक्षिणा, नमस्कार व क्षमाप्रार्थना करतात. “आवाहनं न जानामि न जानामि तवार्चनम् | पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वर ||

दोरकबन्धन मंत्र

पुढील मंत्राने पुरुषांनीउजव्या व स्त्रियांनी डाव्या दंडाला / हाताला दोरक बांधावा. “अनन्त संसार महासमुद्रंअग्न्यं समभ्युद्धर वासुदेव |अनन्तरूपे विनियोजयस्वअनन्त सुत्राय नमो नमस्ते ||

जीर्णदोरक विसर्जन मंत्र

पुढील मंत्राने जीर्ण दोरकाचे विसर्जन करावे. नमः सर्वहितानन्त जगदानन्दकारक | जीर्णदोरकं ममुंदेव विसृजेऽहं त्वदाज्ञया ||

पूजन विसर्जन

अनेन यथाज्ञानेन कृत पूजनेन श्रीमद् अनन्त देवताः प्रीयताम् |

वायन दान मंत्र

यानंतर पुढील मंत्राने पूजन केलेल्या वायानाचे दान द्यावे व दोन वेळा आचमन करून भगवंतास कर्म समर्पण करावे.

गृहाणेदं द्विजश्रेष्ठ वायनं दक्षिणायुतं |तवत्प्रसादादहं देव मुच्येयं कर्मबन्धनात् ||
अनेन वायन प्रदानेन श्री अनन्त देवताः प्रीयताम् |

1 thought on “अनंत चतुर्दशी”

  1. गौरव दशसहस्त्र

    *अनंत चतुर्दशी व्रत ( माहिती )*

    गणरायाच्या मूर्तीच्या विसर्जनाची आणि त्याच्या उत्सवाच्या सांगतेची तिथी म्हणून आपल्याला अनंत चतुर्दशी परिचित आहे. उत्तरेकडील आणि दक्षिणेकडील राज्यात व्रत म्हणूनही या तिथीचे महत्त्व मोठे आहे. अनंत व्रत या नावचे व्रत तिथे केले जाते. त्याची ही आगळीवेगळी कथा. अनंत चतुर्दशी म्हटली की आपल्या सर्वांना आठवते ते गणरायांचे विसर्जन. परंतु अनंत चतुर्दशी ही तिथी आहे भगवान श्रीविष्णूंची. अनंत म्हणजे त्याचा कधीही अंत होत नाही असा आणि जो संपूर्ण विश्वात सामावलेला आहे. अशा भगवान विष्णू यांची ही तिथी. अनंताचे व्रत हे सतत चौदा वर्षे करावे लागते. त्याचा जो पवित्र धागा (तातू) पहिल्या वर्षी केला जातो तो १४ वर्षांपर्यंत सांभाळावा लागतो आणि प्रत्येक वर्षाच्या व्रतपूर्तीची एक एक गाठ त्याला मारली जाते. अशा चौदा वर्षांच्या चौदा गाठी झाल्या की त्याचे उद्यापन केले जाते. अशी एक व्रत पद्धती आहे. असे म्हणतात की, द्यूतामध्ये पांडवांनी आपले सर्वस्व गमावले. त्यावेळी त्यांच्या नशिबी वनवास आला. या सर्व क्लेशातून मुक्त होण्यासाठी त्यांनी अनंताचे व्रत केले होते. पांडवांचा वनवासाचा कालावधी हा १२ वर्षे व दोन वर्षे अज्ञातवास असा १४ वर्षांचा होता. हे येथे उल्लेखनीय आहे. तेव्हापासूनच या व्रताचा प्रारंभ झाला, असेही काही जण मानतात. पांडवांनी हे व्रत करावे, असे भगवान विष्णूंचा अवतार असलेल्या गोपालकृष्णांनीच पांडवांना सुचविले होते, असाही उल्लेख आपल्या पुराणात आढळतो. या व्रताची कथाही मोठी भावपूर्ण आहे. ती अशी की, पुराणकाळात सुमंत नावाचा एक अत्यंत धर्मपरायण आणि वेदशास्त्रसंपन्न असा ब्राह्मण होता. त्याच्या पत्नीचे नाव `दिक्षा’ होते. त्याला सुशीला नावाची कन्या होती. काही काळाने दिक्षा स्वर्गवासी झाली आणि सुमंताने `कर्कशा’ या सौंदर्यवतीशी विवाह केला. ती आपली सावत्र कन्या सुशीला हिला अत्यंत त्रास देऊ लागली. त्यामुळे तिने वडिलांच्या सल्ल्यानुसार कौंडिण्य यांच्याशी विवाह केला आणि पित्याचा निरोप घेतला. पतीसोबत ती जात असताना एका नदीकाठी `कौंडिण्य’ हे वृक्षाखाली विसावले आणि त्यांच्यासाठी पाणी आणण्याकरिता सुशीला नदीवर गेली. त्यावेळी काही स्त्रीया तिला तिथे व्रत करताना दिसल्या.

    तिने त्यांना प्रश्न केला आपण काय करीत आहात? तेव्हा त्यांनी सांगितले, आम्ही अनंताचे व्रत करीत आहोत. अनंत म्हणजे संपूर्ण चराचरात भरून राहिलेले भगवान विष्णू त्यांचे हे व्रत आहे. त्यावर सुशीलाने विचारले, हे व्रत कसे करावे? कुठे करावे? केव्हा करावे? त्यावेळी त्यांनी सांगितले की, भगवान विष्णू यांची कृपा प्रत्येक मानवावर असते. परंतु मानवाच्या वर्तनामुळे १४ वर्षांच्या काळात तिचा हळूहळू र्हास होत जातो. हा र्हास होऊ नये व तो वाढता आणि सदैव कायम राहावा यासाठी हे व्रत मानवाने करावे, असे भगवान विष्णूंनी कथन केले आहे.

    त्यावर तिने या व्रताचा विधी कसा असतो? असे विचारले असता त्यांनी सांगितले की, भगवान विष्णूंची मूर्ती घ्यावी. मूर्ती नसेल तर प्रतिमा अथवा भगवान विष्णूंची प्रतिकात्मक स्थापना करावी. भगवान विष्णूंचे आसन असलेला शेषनाग याची प्रतिकृती दर्भापासून तयार करावी. हा दर्भाचा शेषनाग बांबूच्या टोपलीमध्ये ठेवावा. त्यातच भगवान विष्णूंची प्रतिमा अथवा प्रतीक ठेवावे. नंतर देवघराजवळ अथवा पवित्र

    स्थानी ते सुशोभित करून तिथे ही पूजा ठेवावी. व्रताचे प्रतीक म्हणून दंडाला बांधता येईल एवढय़ा सुताचा तातू तयार करावा. तो पूजेत ठेवावा. त्यानंतर धूप, दीप, पूजा करून आरती करावी. अनारसे आणि लाल भोपळा व गूळ घातलेल्या पुर्या म्हणजेच घारगे याचा नैवेद्य दाखवावा. शेषनागाला रेशमी वस्त्र अर्पण करावे. हा विधी झाल्यानंतर जो तातू तयार केला असेल तो दंडाभोवती भगवान विष्णूंचा प्रसाद म्हणून बांधावा. हा तातू कुंकवाने रंगवलेला असावा. काही भाविकांमध्ये या तातूला दरवर्षी एकच गाठ मारायची आणि तो दंडाभोवती धारण करायचा, अशी श्रद्धा आहे. तर काहींच्या मते हा तातू १४ वर्षे सांभाळायला आणि त्याच तातूला दरवर्षी एक गाठ मारली जाते. अशी रित अनुसरली जाते. नैवेद्यातला अर्धा भाग भगवान विष्णूचे प्रतीक असलेल्या ब्राह्मणाला दक्षिणेसह अर्पण करायचा. हा तातू महिलांनी आपल्या डाव्या हातावर किंवा पुरुषांनी उजव्या दंडावर कुळाचार व परंपरेनुसार बांधायचा असतो. हे ऐकल्यानंतर सुशीलाने ताबडतोब या व्रताचा स्वीकार केला. तेच व्रत तिचे पती कौंडिण्य हेही करू लागले. तेव्हापासून या दाम्पत्याची प्रचंड भरभराट झाली. भगवान विष्णूंच्या अनंत व्रताचा हा तातू सुशीला आपल्या दंडाला सदैव बांधून ठेवत होती. एक दिवस तिच्या पतीने तिला विचारणा केली तेव्हा तिने या व्रतामुळे व त्याच्या या तातूमुळेच आपल्याला समृद्धता प्राप्त झाली आहे, असे सांगितले. तेव्हा कौंडिण्यांनी सांगितले की, जी समृद्धी आपल्याला मिळाली आहे ती कुठल्या व्रतामुळे अथवा तातू सामर्थ्यामुळे मिळाली नसून ती माझ्या बुद्धिमत्तेने मिळालेली आहे. असे म्हणून त्यांनी सुशीलेच्या दंडाभोवतीचा तातू हिसडा मारून तोडला व जवळच पेटलेल्या अग्निकुंडात टाकून दिला. यामुळे दोघांमध्ये प्रचंड खडाजंगीही झाली. त्यानंतर त्यांच्या आयुष्यात संकटांच्या मालिकाच निर्माण झाल्या. ते कफल्लक झाले. त्यानंतर कौंडिण्यांना आपल्या कृत्याचा पश्चाताप झाला आणि त्यांनी भगवान अनंताची कठोर तपश्चर्या करून त्यांना प्रसन्न करून घेण्याचा निर्णय घेतला. अनंताच्या शोधात ते घनदाट जंगलात गेले. तेव्हा सर्वप्रथम त्यांना आंब्याने लगडलेला वृक्ष दिसला. परंतु त्यातला एकही आंबा कुणी खात नव्हते. कारण ते संपूर्ण झाड किडून गेले होते. त्यांनी त्या वृक्षाला विचारले, तू भगवान अनंतांना पाहिले आहे काय? तेव्हा वृक्षाने नकारार्थी उत्तर दिले. कौंडिण्य आणखी पुढे गेले असता वाटेत त्यांना एक गाय व वासरू दिसले. जवळच्या हिरव्या कुरणात उभा असलेला वृषभराजही दिसला. परंतु ते कुणीही घास खात नव्हते. आणखी पुढे गेल्यावर एकमेकांशी जोडली गेलेली 2 तळी दिसली. आणखी पुढे गेल्यावर त्यांना रस्त्यात हत्ती व एक गर्दभही दिसला. त्यांनी त्या प्रत्येकाला विचारणा केली, तुम्हाला अनंत कुठे आहे हे माहिती आहे का? त्या प्रत्येकाने या प्रश्नाचे उत्तर नकारार्थी दिले. आम्ही हे नावही कधी ऐकले नाही, असे ते म्हणाले. यामुळे कौंडिण्य हे निराश झाले आणि त्यांनी गळफास घेऊन आत्महत्या करण्याचे ठरविले. तेव्हा भगवान विष्णूंना त्यांची दया आली आणि त्यांनी एका ब्राह्मणाचे रुप घेतले व हे मानवा, आत्महत्या करू नकोस. गळ्याभोवतालचा फास काढ आणि माझ्यापाठोपाठ समोरच्या गुहेत चल. तिथे तुझी मनोकामना पूर्ण होईल, असे सांगितले. त्यांच्या विनंतीला मान देऊन कौंडिण्य हे गुहेत जाऊ लागताच प्रथम त्यांना घनदाट अंधार दिसला. पुढे त्यांना संपूर्ण गुहा दिव्य तेजाने उजळलेली दिसली. काही वेळाने तिथे एक सिंहासन दिसले आणि त्याची पूजा करणार्या असंख्य भाविकांचा समुदायही कौंडिण्यांना दिसला. ते चकित होऊन हे दृष्य पाहत असताना त्यांच्या सोबतचा ब्राह्मण सिंहासनाच्या दिशेने झपझप गेला व त्यावर तो विराजमान झाला. त्यानंतर कौंडिण्यांना तो ब्राह्मण दिसलाच नाही.

    सिंहासनावर बसलेले ते भगवान विष्णू दिसले तेव्हा त्यांनी क्षमा याचना केली व आपले वैभव पुन्हा मिळवून द्यावे अशी विनंती केली. तेव्हा तू माझे अनंत व्रत १४ वर्षे करशील तर तुझे गतवैभव, पुत्र-पौत्र पुन्हा प्राप्त होतील, असे सांगितले. एवढेच नव्हे तर कौंडिण्यांना वाटेत दिसलेल्या प्रत्येक प्रतीकाचा अर्थही भगवान विष्णूंनी उलगडून सांगितला. ते म्हणाले, तू जो फळांनी भरलेला पण अंतर्बाह्य किडून गेलेला जो आम्रवृक्ष पाहिला तो गतजन्मी असा विद्वान ब्राह्मण होतो की ज्याने आपल्या ज्ञानाचा उपयोग कधीही कोणासाठी केलेला नाही. जी गाय तू पाहिली ती एकेकाळची अशी पृथ्वी होती की जिने पेरलेले बी उगवून देण्याऐवजी ते फस्त करण्यात धन्यता मानली होती आणि जो बैल तुला दिसला तो एकेकाळी कर्मठ धर्म होता आणि जी दोन तळी तू पाहिलीस ती परस्परांवर प्रेम करणार्या आणि फक्त स्वतःचाच विचार करणार्या स्वार्थी २ बहिणींची प्रतिकृती होती. वाटेत दिसलेला गर्दभ अहंकाराचे तर हत्ती क्रोधाचे प्रतीक होता. हे सगळे जाणून घेतल्यानंतर कौंडिण्यांनी भगवान विष्णूंना वंदन केले आणि त्यांनी अनंत व्रत करून आपले गेलेले सर्व वैभव आणि पुत्रपौत्र पुन्हा प्राप्त केले.

    बिहार आणि उत्तर प्रदेशात भगवान विष्णूंचा निवास ज्या क्षीरसागरात म्हणजे दुधाच्या सागरात आहे त्याचे प्रतीक म्हणून एका पसरट भांडय़ात दूध घेतात आणि त्यात भगवान विष्णूंची प्रतिमा ठेवतात किंवा भगवान विष्णूंचे प्रतीक असलेल्या झाडाच्या लाकडाला कुंकवाचे १४ टिळे लावतात व ते त्या भांडय़ात ठेवून त्याची पूजा १४ प्रकारच्या पत्री, फळे, फुले व चौदा घारगे अर्पण करून करतात. पंचामृत अर्पण करतात. तसेच चौदा गाठी असलेला तातूही अर्पण करतात. असा हा अनंत चतुर्दशीचा महिमा आहे. भगवान गणेश हे भगवान विष्णूंचाच अवतार असून मानवाच्या आणि त्रिभुवनाच्या कल्याणासाठी त्यांनी माता पार्वतीचा पुत्र म्हणून जन्म घेतला तो दिवस गणेश चतुर्थीचा. तर भगवान विष्णूंच्या अनंत व्रताचा समारोप अनंत चतुर्दशीला होतो. त्याच मुहूर्तावर भगवान विष्णूंचा अवतार असलेले गजानन पृथ्वीवरून पुन्हा आपल्या मूळ स्थानी (स्वर्गात) परतात, अशीही श्रद्धा आहे.

    हिन्दूधर्म संस्कृती
    ©आपली संस्कृती शास्त्र
    🙏🏻 जय शंकर

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