त्यौहार का नाम : पोला / पिठोरी अमावस्या
तिथि : श्रावण कृ. अमावस्या
श्रावणामावास्यायां प्रदोष व्यापिनां कार्यम्
दिनद्वये प्रदोषव्याप्तौ एकदेशव्याप्तौ परा |
परदिने प्रदोष व्याप्तभावे पूर्वाग्राह्या ||
पिठोरी अमावस्या
- आषाढ़ माह की अमावस्या से श्रावण अमावस्या तक इस ‘पिठोरी’ पट का पूजन किया जाता है |
- इस कालावधि / कालखंड में ज़रा – जीवंतिका पूजन, नागपंचमी, अदित्यरानुबाई (सूर्य उपासना व्रत), रक्षाबंधन तथा भक्तागौरव जन्माष्टमी आदि वृतो का समावेश होता है |
- कृष्णोपनिषद के अनुसार कृष्णावतार में श्रीकृष्ण (भगवान विष्णु) के सद्गुरु भगवान शंकर है | भगवान शंकर का नित्य सान्निध्य प्राप्त होने हेतु श्रीकृष्ण सदा ‘वंशी’ (बांसरी) को धारण करते है | आज भी बास के वृक्ष का भगवान शंकर के स्वरूप पूओजन किया जाता है | (इस प्रकार श्रावण मास और इस मासमे आनेवाली श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का रहस्य हमें पता चलता है |)
पिठोरी अमावस्या पूजन विधि
- चावल या किसी अनाज की (८*८) चौसठ ढेरिया बनाकर उसपर चौसठ ‘योगिनी देवता’ का आवाहन एवं पूजन किया जाता है |
- कई स्थानों पर दीवारों पर चित्र बनाकर या आटे की मूर्ति बनाकर उसका पुजन किया जाता है |
- इसके पश्चात खीर का नैवेद्य अर्पण कर ‘वायन दान’ किया जाता है, ऐसी प्रथा है |
वृषभ देवता के प्राचीन संदर्भ
- श्री शिवपंचाक्षर स्तोत्र में “श्रीनिलकण्ठाय वृषध्वजाय” अर्थात भगवान महादेव के ध्वज पर वृषभ का चिन्ह होने का सन्दर्भ प्राप्त होता है |
- भागवत पुराण के अनुसार ‘वृषभ’ भगवान विष्णु का अवतार है | कृषि के द्वारा प्रजा का भरण – पोषण किया जाता है | इसलिए यहाँ किसानो की ऐसी मान्यता है की बैल के पद स्पर्श से जमीन अधिक उपजाऊ होती है |
- शिवपुराण के अंतर्गत ‘वृशवैश्य – भील’ कथानक के अनुसार वृषभ को भगवान श्रीशंकर के गानों स्थान प्राप्त हुआ |
- अथर्ववेद (९.४) के अनुसार ‘वृषभ युक्त गाए हमें प्राप्त हो |’, ऐसी प्रार्थना की हुई दिखाई देती है |
- इसके अतिरिक्त ‘ऋग्वेद, तैत्तिरीय संहिता, काठक संहिता, कृषि पाराशर’ आदि विविध प्राचीन ग्रंथो में वृषभ / बैल के संदर्भ प्राप्त होते है |
पोला पूजन विधि
- प्रत्यक्ष वृषभ / बैल ना हो तो मिटटी से बने बैल / नंदी बनाकर (जो इस त्यौहार की देवता है) पूजन किया जाता है |
- इस दिन बैलो को देवता मानकर खेती में जोता नहीं जाता या अन्य किसी तरहा का कार्य उनसे किया नहीं जाता |
- उन्हें नहला – धुलाकर उसके कंधे पर (खंदूर) घी और हल्दी का लेप लगाया जाता है |
- इसके बाद बैलो के सिंग रंगते है, उनके पैरो एवं गलेमे घुंगरू बांधते है, गले में मालाए पहनाते है, पीठ पर रंगबिरंगी वस्त्र डालकर उन्हें सजाते है |
- संध्या के समय बैलो को नगर के मुख्य स्थानों पर ले जाकर जुलुस निकालते है | वहा हर स्थान स्थान पर बैलो का यथोपचार पूजन कर आरती उतारात्ये है | मिष्ठान्न (पुराण पोली) आदि का भोग अर्पण किया जाता है |
- कुछ स्थानों पर कच्ची फसल (ज्वार,मक्का) आदि द्वारा ‘ठोम्बरा’ बनाकर नैवेद्य अर्पण किया जाता है |
- पूजन के बाद बैलो को राखी अर्पण की जाती है |
- इसके उपरांत बहन अपने भाई को टिका कर आरती उतारती है और ककड़ी / खीरा भाई के पीठ पर फोड़ती है और उसके बाद ही ककड़ी का सेवन कराती है, ऐसी भी प्रथा है |
महत्त्व
- राष्ट्र की समृद्धि यह खेती की उन्नति और गौ आदि पशुधन की वृद्धि द्वारा पता चलती है जिसका प्रमुख आधार पूर्वापार से वृषभ / बैल ही है | यह त्यौहार इस देवता स्वरूप वृषभ प्रति कृतज्ञता एवं श्रद्धा भाव को दर्शाता है |
- ‘बैल की ह्त्या ना करे और उसे प्रताड़ित ना करे |’, ऐसा सन्देश अथर्ववेद (९.४.१७)और महाभारत (शांति.२६२.८६) में स्पष्ट किया गया है |
- हड़प्पा और मोहेंजोदारो की खुदाई में बैलो के चित्र अंकित मुद्रए मिली जो तत्कालीन संस्कृति के वृषभ पूजक होने की पुष्टि कराती है |
- म्हैसूर के पास ‘वसवनगुडी’ नामक स्थान पर बैल का स्वतन्त्र मंदिर है |
- आज भी किसान अपने बैलो को संतान की भाति प्रेम करते है, यह हमारी भारतीय संस्कृति है जहा सभी प्राणियों प्रति दया, प्रेम, करुना भाव रखते हुए परस्पर कल्याण का चिंतन किया जाता है | और यही भाव इस त्यौहार में देखने मिलता है |
नन्दीश्वरो महातेजा नगेन्द्रतनयात्मजः |
सनारायनकैर्देवैः नित्यं अभ्यर्च वन्दितः ||